आओ सिनेमा से मिले...

                  आओ सिनेमा से मिले...

सिनेमा का नाम आते ही हम सब के दिमाग में एक 70एमएम के पर्दे की छवि छप जाती है, जिस पर किसी फिल्म का सीन चल रहा है, हमको लगता है कि एक सिनेमा का काम सिर्फ इतना ही होता है, परंतु सिनेमा इंडस्ट्री में काम करने के बाद ही मैं समझ पाया कि जितना योगदान फिल्ममेकर्स का फिल्म बनाने में होता, उससे कई jiyda योगदान सिनेमा कर्मियों का फिल्म को लोगो तक पहुंचने में और उनके फिल्म देखने के experience को बढ़ाने में होता है, उदहारण के तौर पर, आप किसी सिनेमा में मूवी देख रहे है और मूवी आपको को काफी पसंद भी आईं तो आप हमेशा मूवी मेकर्स की तारीफ करते है, की क्या मूवी बनाई है, और वहीं अगर कोई फिल्म आपको अच्छी नहीं लगती है तो ऐसा कहते लोगो को अक्सर सुना जाता है कि पता नहीं लोग ऐसी मूवी क्यों बनाते है और सिनेमा वाले ऐसी मूवीज़ को क्यों अपने सिनेमा घरो में लगते है, यहां तक कि कुछ लोग तो फिल्म पसंद ना आने का गुस्सा तक सिनेमा हॉल की कुर्सियों तक पर निकाल जाते है। और अगर किसी फिल्म की रिलीज़ को लेकर विवाद है तब भी सिनेमा घरों के शीशे ही सब से पहले टूटते है,

फिल्म एक स्वादिष्ट dish है तो सिनेमा उस dish में नमक का काम करता है, जिस के कम या ज्यादा होने से का स्वाद बेस्वाद हो सकता है, मल्टीप्लेक्स युग में अगर फिल्म इंडस्ट्री इतनी उचाईयो तक पहुंची है तो वो सिर्फ मल्टीप्लेक्स इंडस्ट्री की वजह से,
मल्टीप्लेक्स मालिक इस बात को समझते है की लोग मल्टीप्लेक्स में सिर्फ मूवी देखने के लिए नहीं बल्कि एक अच्छी सर्विस को experience करने भी आते है, अगर उनको फिल्म ना भी पसंद आए तो एक अच्छी सर्विस उनके मूवी देखने के फैसले पर मरहम का काम करती है, जिसकी याद वह अपने साथ लेकर जाते है, और वहीं अगर फिल्म भी अच्छी हो और सिनेमा सर्विस भी तो सोने पर सुहागे वाली बात हो जाती है,

धन्यवाद
मनीष सचदेवा

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वेरी गुड।

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खुद ही लिखा है

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