रावण: पंडित या असुर (continues)

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रावण ने फिर ब्रह्मा जी की तपस्या शुरू की और कहा की मुझे अमरता का वरदान चाहिये. ब्रह्मदेव ने कहा वो मेरे लिये देना सम्भव ही नहीं है लेकिन जितना हो सकता है मैं ऊतना तुम्हें आज दे देता हूँ. तुम्हारी नाभि में, मैं एक अमृत कुंड प्रदान करता हूँ और जब तक यह अमृत कुंड तुम्हारी नाभी में रहेगा तब तक तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी. रावण ने फिर ब्रह्मा जी से पूछा कि पितामह यह अमृत कुंड नाभि में कब तक रहेगा? तब ब्रह्मा जी ने कहा अग्नि बाण के अतिरिक्त इस अमृत कुंड को कोई नहीं सुखा सकता है (अग्नि बाण का प्रयोग भगवान विष्णु के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं कर सकता है) इसके अतिरिक्त, रावण ने वरदान ऐसे माँगा कि उसको देव, दनुज, नाग, यक्ष, किन्नर, गंधर्व कोई भी युद्द में न मार सके. ब्रह्मा जी ने तथास्तु कह दिया.

इसी समय ब्रह्मा जी की दृष्टी एक अप्सरा पर पडी जो पास में जो छुपके से अपना कान लगा के सुन रही थी कि ब्रह्मदेव रावण को क्या वरदान दे रहे हैं. वो अप्सरा घबराते हुए ब्रह्मा जी को प्रणाम करती है. उन्होंने सिर्फ उस अप्सरा को कहा ‘जिस कान से तुमने रावण कर वरदान सुना है, उसी कान पर किसी वानर का जोरदार मुक्का जिस दिन पडेगा, उस दिन समझ लेना रावण और राक्षसों का अंत आ गया” ब्रह्मा जी चले गये और अप्सरा चुपके से भागने वाली थी कि रावण ने उसे पकड लिया और बोला कौन हो यहाँ क्याकर रही हो? उसने बताया कि युँ ही ब्रह्मदेव क्या कह रहे है वो देखने आई थी. रावण ने उस अप्सरा को कहा तुम्हें बहुत ज्यादा कान लगा के सुनने की आदत है इसलिये अब मेरे साथ चल अब लंका के द्वार पर, वहाँ कोई घुसे तब कान लगा के सुनना और रखवाली करना और उसे लंकिनी नाम से मुख्य द्वार पर रखवाली के लिये रख दिया.

रावण अब तपस्या जनित अपनी शक्ति की लगभग चरम सीमा पर पहुँच गया था इसलिये अभिमान भी स्वाभाविक था। एक दिन रावण अपने अभिमान और ऐश्वर्य के बल पर अकेले ही त्रिलोक में विजय के लिये निकला और सुतल लोक में गया. वहाँ सुतल लोक में राजा बलि राजमहल में थे और रावण बडे अभिमान और गरजना के साथ उनके द्वार पर गया और द्वार पाल को बोला “बलि को बोलो रावण युद्ध के लिये आया है” द्वारपाल के भेष में कोई और नहीं वल्कि स्वयं नारायण थे उन्होंने बलि को वरदान दिया था, कि उसके द्वार पर पहरा वो देंगे. रावण ने जब द्वार पाल को जबरन धमकाकर बोला, तो द्वारपाल ने कहा “हे लंकापति रावण, महाराज बलि इस वक्त पूजा में है और पूजा की समाप्ति के बाद वो तुमसे अवश्य लडगें, चिंता मत करो धैर्य रखो, वो भगवान भक्त हैं इसलिये पहले वो उस काम को ही पूरा करंगे उसके बाद वो अपना ये सामने रखा कवच पहनने को यहाँ आएंगे तब तुम्हारा संदेश उन्हें हम यहीं तुम्हारे सामने ही दे देंगे”. रावण अभिमान में चूर था और बोला “अच्छा इस कवच को पहनेगा वो मैं इसे अभी तोड देता हूँ.” रावण आगे बडा और उस कवच को उठाने की कोशिस करने लगा, लेकिन वो इतना भारी था कि रावण को उठाने में पसीना आ गया. द्वारपाल ने कटाक्ष किया लंकापति रावण, हमारे महाराज बलि का कवच तक उठाने में आपके माथे पर पसीना निकल आया है मुझे संदेह हो रहा है कि तुम महाराज बलि से कैसे लड पाओगे कोई बात नहीं कुछ ही समय की बात है और आप धैर्य रखें. रावण मन में डर गया और बाद आता हूँ कहकर भाग निकला, वापस नहीं आया.

रावण ने सभी देवताओं, यक्ष, किन्नर, गंधर्व आदि को युद्द में परास्त करके राक्षसों को अभय कर दिया और मानवों के बारे में तो वो पहले से ही सोचता था कि, वो क्या लडगें बेचारे सीधे साधे लोग है इसलिये पृथ्वी के अन्य भू भागों पर उसके राक्षस अपनी चला ही रहे थे. यद्यपि शक्तिशाली राज्यों, जिनमें अयोध्या, मिथिला, कौशल जैसे अन्य राजा थे, वो बहुत उच्च कोटी के प्रतापी और सक्षम राज्य थे और कभी सीमा विस्तार के लिये युद्ध नहीं करते थे, ये राजा सन्मार्गी और नारायण भक्त थे, उनकी प्रजा भी सुखी संपन्न और उच्च कोटी की थी. महाराजा दशरथ तो इतने प्राक्रमी थे कि, देवराज इंद्र ने तक उनसे युद्ध में सहायता माँगी थी. राजा जनक इतने श्रेष्ठ राजा थे कि उन्हें प्रजा के, हित के कार्यो और संत सेवा में अपनी देह की सुध तक नहीं होती थी और इसलिये उनका नाम विदेह भी पड गया था। एक से बढकर एक ऋषी, महर्षी, मुनि जिनमें परशुराम, विस्वामित्र, बामदेव जैसे लोग इन राजाओं के दरबार में आते थे और इसी वजह से इनके राज्य को टेडी आँख देखने का साहस तीनों लोकों में स्वत: ही कोई नहीं कर सका.

उस वक्त रावण जैसे कई अन्य तपस्वी भी थे, राजा बलि, वानर प्रदेश का राजा बालि, बाणासुर आदि. रावण ने ब्रह्मा जी से वरदान पाने के बाद सोचा अब वो अमरता का वरदान पाने के लिये महादेव को ही प्रसन्न कर के रहेगा और वरदान ले के रहेगा. रावण त्रिलोक विजेता कहलवाना चाहता था. इसके लिए रावण ने भगवान भोले नाथ की तपस्या आरम्भ कर दी, वर्षों तक तपस्या की, और कठोर तपस्या करना शुरु कर दिया, कभी निराहार रह कर तो कभी भगवान भोलेनाथ की सुदंर स्त्रोतों से वीणा वादन कर. एक दिन वो पूजा में जब पुष्प चढाने लगा तो पुष्प कम पड गये, तब उसने पूजा को पूर्ण करने के लिये उसने एक-एक कर अपना मस्तक काट कर पुष्प की जगह चढाना शुरु कर दिया. आज पुष्प की जगह महादेव को मेरे शीश अर्पण हैं. दर्द से रावण बेसुध सा हो गया लेकिन मुँह से हर हर महादेव कहना नहीं छोडा. अंतिम सिर से झुक कर महादेव को अंतिम प्रणाम कर जैसे ही खड्ग प्रहार किया अपनी गर्दन पर महादेव ने प्रकट हो उसका हाथ पकड लिया, बोले रावण मुझे बहुत प्रसन्नता हुई, तुमने मेरे लिये अपने प्राण संकट में डाल दिये, माँगो क्या चाहिये. रावण दर्द को सहता हुआ महादेव के चरणों में प्रणाम करता हुआ, अति विनम्र होके बोला “हे देवाधिदेव महादेव मुझे आपके दर्शन हो गये, आप मुझ से प्रसन्न हैं मुझे अब और कुछ नहीं चाहिये, मैं माँगने की ईच्छा से ही तप कर रहा था, लेकिन आप के इस सुंदर स्वरूप को देखकर ही मैं धन्य हो गया, आप प्रसन्न हो गये मुझे इस बात से पूर्ण संतोष है प्रभु और मुझे कूछ नहीं चाहिये, आपने मुझे दर्शन दे दिये, मेरे लिये इससे बडा वरदान कुछ नहीं, अत: मुझे कुछ नहीं चाहिये. महादेव ने कहा तुम नि:संकोच होके माँगो, तुम्हें जो चाहिये तुम माँग लो. रावण ने कहा “हे महादेव, हे देवाधिदेव, हे भक्तवत्सल यदि आप देना ही चाहते हैं, तो मुझे आपकी अटुट भक्ति दे दीजिये और मैं हमेशा आपके “नम: शिवाय” रुपी मंत्र का जप करता रहूँ, इसके अतिरिक्त मुझे कुछ भी नहीं चाहिये. महादेव उसकी बात सुन अत्यंत प्रसन्न हुये. तब महादेव ने उसे अपनी भक्ति प्रदान की और वरदान दिया कि, तुम्हारे शीश पुन:आ जाएंगे और आज के बाद, तुम्हारा जब भी कोई अंग कट जाएगा उस के स्थान पर पुन: नया अंग़ स्वत: ही उग आएगा. महादेव ने भक्ति के अतिरिक्त उसे बहुत अपार बल दे दिया और साथ में पाशुपत नामक अस्त्र दिया.

महादेव से बल पाकर जब वह जैसे ही अपने स्थान से ऊठा और वापस चलने के लिये कदम आगे रखा तो तो पृथ्वी डगमगा गई और रावण बहुत आनंदित हो गया और पुन: महादेव को मन में प्रणाम कर, और महादेव का सच्चा और अडिग भक्त बन कर वो लौट के लंका में आ गया. महादेव का रावण प्रिय भक्त बन गया, लंका से प्रतिदिन पुष्पक विमान से कैलाश जाता था और वहाँ भगवान महादेव की पूजा और अराधना करता था। रावण ने तीनों लोकों को अपनी गति से चलाने वाले नौ ग्रहों को जब अपने अधीन कर लिया, और दिगपालों से उसने अपने लंका के मार्गो मे जल छिड्काव के काम में लगा दिया तब उसे एक तरह से त्रिलोक विजेता माना गया, क्युँकी त्रिलोक का संचालन करने वाले सभी देवता, नौ ग्रह उसके अधीन थे और अब उसे भी पराजित करने वाला त्रिलोक में कोई नहीं था उसने तीनों लोकों में रहने वाले अधिकांश भागों को अपने अधीन कर लिया था।

लेकिन अब रावण का अंत भी नजदीक आ रहा था. उसके पापों का घड़ा तेजी से भर रहा था. अब तक एक ब्राह्मण का बालक जाना जाता था, लेकिन निचे दिए ब्रितांत के कारन वो देत्य जाना जाने लगा और उसका अंत हुआ.

एक बार नारद जी फिर से लंका आये, रावण ने उनकी बहुत अच्छी सेवा की, नारद जी ने रावण को कहा “सुना है महादेव से बल पाए हो रावण ने कहा हाँ आपकी बात सही है. नारद ने कहा कितना बल पाए. रावण ने कहा यह तो नहीं पता परंतु अगर मैं चाहूँ तो पृथ्वी को हिला डुला सकता हूँ. नारद ने कहा तब तो आपको उस बल की परीक्षा भी लेनी चाहिये क्युँकि व्यक्ति को अपने बल का पता तो होना ही चाहिये. रावण को नारद की बात ठीक लगी और सोच के बोला महर्षि अगर मैं महादेव को कैलाश पर्वत सहित ऊठा के लंका में ही ले आता हूँ ये कैसा रहेगा? इससे ही मुझे पता चला जायेगा कि मेरे अंदर कितना बल है. नारद जी ने कहा विचार बुरा तो नहीं है और उसके बाद चले गये.


एक दिन रावण भक्ति और शक्ति के बल पर कैलाश पर्वत समेत महादेव को लंका में ले जाने का प्रयास करना शुरू कर दिया. जैसे ही उसने कैलाश पर्वत को अपने हाथों में ऊठाया तो देवी सती फिसलने लगी, वो जोर से बोली ठहरो-ठहरो ! इसके उन्होंने महादेव से पूछा कि भगवन ये कैलाश क्युँ हिल रहा है महादेव ने बताया रावण हमें लंका ले जाने की कोशिस में है. रावण ने जब महादेव समेत कैलाश पर्वत को अपने हाथों में ऊठाया तो उसे बहुत अभिमान भी आ गया कि अगर वो महादेव सहित कैलाश पर्वत को ऊठा सकता है तो अब उसके लिये कोई अन्य असम्भव भी नहीं और रावण जैसे ही एक कदम आगे रखा तो उसका संतुलन डगमगाया लेकिन इसके बाद भी वो अपनी कोशिस में लगा रहा और इतने में देवि सती एक बार फिर फिसल गई उन्हें क्रोध आ गया उन्होंने रावण को श्राप दे दिया कि “अरे अभिमानी रावण तु आज से राक्षसों में गिना जाएगा क्युँकि तेरी प्रकृति राक्षसों की जैसी हो गई है और तु अभिमानी हो गया है. रावण ने देवि सती के शब्दों पर फिर भी ध्यान नहीं दिया तब भगवान शिव ने अपना भार बढाना शुरु किया और उस भार से रावण ने कैलाश पर्वत को धीरे से उसी जगह पर रखना शुरु किया और भार से उसका एक हाथ दब गया और वो दर्द से चिल्लाया उसके चिल्लाने की आवाज स्वर्ग तक सुनाई दी और वो कुछ देर तक मूर्छित हो गया और फिर होश आने पर उसने भगवान महादेव की सुंदर स्तुती की ”जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्… "

भोलेनाथ ने स्तुति से प्रसन्न होके उससे कहा कि रावण यद्यपि मैं नृत्य तभी करता हूँ जब क्रोध में होता हूँ, इसलिये क्रोध में किये नृत्य को तांडव नृत्य नाम से संसार जानता है. किंतु आज तुमने अपनी इस सुंदर स्रोत से और सुंदर गायन से मेरा मन प्रसन्नता पूर्वक नृत्य करने को हो गया. रावण द्वारा रचित और गाया हुआ यह स्रोत शिव तांडव स्रोत कहलाया क्युँकि भगवान शिव का नृत्य तांडव कहलाता है परन्तु वह क्रोध मे होता है लेकिन इस स्रोत में भगवान प्रसन्नता पूर्वक नृत्य करते हैं. इसके उपरांत भगवान शिव ने रावण को प्रसन्न होके चंद्रहास नामक तलवार दी, जिसके हाथ में रहने पर उसे तीन लोक में कोई युद्द में नहीं हरा सकता था. लेकिन देवी सती के श्राप के बाद से ही रावण की गिनती राक्षसों में होने लगी और राक्षसों की संगति तो थी ही, इसलिये राक्षसी संगति में अभिमान, गलत कार्य और भी बढते चले गये.

श्राप के पहले वो ब्राह्मण था और सात्विक तपस्या करता था. ब्रह्मदेव और महादेव की पूजा का जल लाने का कार्य भी उसने देवताओं को दिया हुआ था. लेकिन बाद में वो सात्विक से तामसी प्रवर्त्ति में पड गया अभिमान और असुरों की संगति इन दो कारणों से रावण पतन को प्राप्त हुआ. रावण से ज्यादा रावण के नाम का फायदा ऊठाया दूसरे राक्षसों ने, उसके नाम पर कर वसूली, सिद्द, संतों मुनि जनों का अपमान होने लगा. राक्षसों ने देवताओं से अपना बैर निकालने के लिये, वो कभी गायों को और कभी ब्राह्मणों को परेशां करने लग गए. राक्षसों ने सोचा की स्वर्ग में बहुत कम देवता ही रह गये है और पृथ्वी पर शायद ये देवता ही रूप बदल कर रहने वाले ब्राह्मण हैं और संत बन के देवताओं की मदद कर रहे हैं. राक्षस जहाँ तहाँ सभी को त्रास देने और मारने लगे. ऐसे वक़्त में पृथ्वी ब्रह्मा जी के पास पहुंची की आपका पड़ पोता इतना पाप कर रहा है की मेरे से उस पाप का भार बर्दाश्त नहीं हो रहा. और उस वक़्त ब्रह्मा जी ने बताया की अब समय आ गया है की भगवन राम अवतार लेकर इस दुष्ट रावण का अंत करेंगे.

और फिर हुआ सीता हरण और रावण का अंत. जिसका जिक्र फिर कभी करेंगे.

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