कुछ लोग दूसरों की रस्मों पर उंगली उठाया कर बड़ा आनंदित होते हैं। रंजीत बावा वो पंक्तियाँ कहना भूल गए, की बुरा जो देख्न मैं चला, बुरा न मिलय कोई, जो घर देखा आपना, उससे बुरा न कोय।
हालांकि उनको अच्छी तरह से पता है की सब धर्मों समुदायों में कुछ ऐसी बातें प्रचलित हैं जो उस वक्त सही थीं, लेकिन आज वो समय वाहक हो गई हैं। As today you’ve made Yesterday a lie, so will tomorrow do to you. जैसे आज तुम कल को झुटलाने पर तुले हो। कल तुम्हारे आज को झुटला देगा। जब यह रस्में शुरू की गई थीं, तब उनका महत्व और था, आज और है। जिस भी समुदाय से वो खुद हैं, उनमें भी होंगी। जो मैं आगे बताता हूँ।
पहली बात, पगड़ी धारी सिख लोग जिनको अपने गुरु मानता है, वो सभी गुरु हिन्दू थे। 10 के 10. वो सभी हिन्दू देवी देवताओं को मानते थे। उनकी प्रशंसा में जगह जगह दोहे आए हैं। गुरु ग्रंथ साहिब में सेकड़ों बार भगवान राम का नाम आया है, हरी नारायण का नाम आया है, देवी पार्वती, शिव भगवान का नाम आया है, हरिमंदिर साहब का नाम हरी नारायण भगवन के नाम पर रखा गया था।।
खुद गुरुओं के माता पिता उन्ही देवी देवताओं के नाम के ऊपर अपने बच्चों, जो बाद में जाकर गुरु बने, के नाम रखते आए हैं। त्रेता युग में रामायण काल में बाली के पुत्र अंगद के नाम पर दूसरे गुरु का नाम अंगदेव रखा गया थे। चौथे गुरु को भगवान राम के नाम पर श्री रामदास जी कहा गया। पाँचवे गुरु जी को द्वापर काल में पांचों पांडवों में से सबसे ज्यादा मशहूर पांडव अर्जुन के नाम पर श्री अर्जुन देव जी कहा गया। फिर गोविंद तो सभी को पता है की भगवान कृष्ण के कई नामों में से एक मशरूर और बहुत उपयुक्त होने वाला नाम है, गुरु ग्रंथ सभी के बहुत दोहों में आता है। तो आठवें और दसवे गुरुओं के नाम गोविंद पर रखे गए। और सब के पीछे बहादुर, देव, राय, आदि लगाया गया।
और जब मुस्लिम राजायों ने हिंदुओं पर अत्याचार बढ़ा दिए, तो फिर गुरु गोबिन्द राय, जो उस वक्त तक राय ही थे, ने 1699 में सिख पंथ की नीव रखी, और खुद को व अपनी फौज को ‘सिंह’ नाम दिया। क्या वो हिंदुओं की रक्षा के लिए नहीं रखी थी?
अब वही खालसा पंथ उस बात का कुछ बेनेफिट लेने को कहें की हुमने हिंदुओं की रक्षा की, इस बात का बार बार जिक्र करो। और हो सके तो उसका कोई बेनेफिट दो।
तो यह तो बेकार की बात है। फिर कल को मराठा कोम कहेगी की हुमने बहुत शाहीदियाँ दी। हमें कुछ एक्स्ट्रा दो। या पहचानो। या कल को भगत सिंह की फॅमिली कहे की जट प्रविराओं, जो सिर्फ उस समुदाय को कुछ एक्स्ट्रा दो जो पगड़ी बांधते हैं। या फिर राजपूत कहें? की हम भी सिंह लगते हैं अपने नाम के पिछे, पगड़ी भी बांधते हैं, हुमने भी तुम्हारे से भी अधिक लड़ाईयां लड़ी, कुर्बानियाँ दीं। तुमने तो हिंदुओं में से कुछ बहादुर चुन कर खलसे बनाए, हमारी पूरी जाती ही बहादूरों की रही है। ऐसए कैसे चलेगा? सबने अपने अपने काम किए। सबने एक दूसरे की रक्षा की। अगर कोई हिन्दू खालसा फौजी बन कर लड़ने गया मुस्लिम राजयों से, तो पीछे उसके परिवार को उस परिवार ने सहारा दिया, जो लड़ने नहीं गया।
पहले पंज प्यारे, दया राम, धर्मदास, हिम्मत राय, मोहकम चंद, साहिब चंद सभी अलग अलग जातियो के थे। सभी अपनी अपनी जाती के हिसाब से उसका सिला मांगेंगे तो क्या होगा? छज अपना और छालनी अपना हिस्सा मांगने लग गई तो?
आज भी देख लीजिए, अकेले ग्रंथ साहिब में हिन्दू समुदाय की मान्यताओं वाले देवी देवता ही नहीं, बल्कि जैसे हिन्दू जनएयू पहनते थे, गुरु जी ने अपनी फौज को गातरा पहनने को बोल। और उस वक्त की लदायियों के हिसाब से उसमें किरपन हमेशा साथ रखने को बोल। और उसी वक्त के हिसाब से बोल की अपने बालों को सवार कर मत रखो और उनको बढ़ाओ। लेकिन कंघी साथ में रखो। कड़ा जो लड़ाई में तलवार के वार को रोकता है, वो हमेशा पहनो। और अगर तुमने नीचे कच्छा पहना हुआ है, तो काफी है। लेकिन आज के वक्त ने उन चीजों की जरूरत और अहमियत को कम कर दिया। लेकिन जो पक्के अमृत धारी सिख हैं, वो उनको पाँच ककारों के नाम से उनकी इज्जत करते हैं और जो मोने बंदे हैं, दाड़ी केस नहीं रखते। उनको वो तुच्छ समझने लग गए। अब कोई मोना बंदा जो पगड़ी न पहनता हो, उन पांचों का मजाक उड़ाये की यह तो बहम है, तो उसका कोई मीनिंग नहीं। क्यूंकी उस वक्त वो वक्त की जरूरत और उपयुक्त रहे होंगे, लेकिन आज कुछ लोगों की श्रद्धा का विषय बने हुए हैं।
ऐसए ही हिंदुओं ने उस वक्त जनेऊ धरण करवाया, उस वक्त उसकी कोई जरूरत रही होगी। जो भी धरनाएं बनाई गईं थी, लेकिन आज के वक्त वो बेमानी हो गई हैं। लेकिन कुछ समुदाय उनको पूरी शरदा से देखता है। तो जिसने मजाक उड़ान है, वो उड़ा सकता है। क्यूंकी आज लॉजिक न तो गातरा पहनने वाले के पास है, न ही जनऊ पहनने वाले के पास। कोई तो कहता है की मैं चाहे एक चोटी सी किरपान, बिल्कुल 1 इंच की चिन्ह के रूप में रखनी है, कोई कहता है की मैं पूरी तलवार ही किरपान के तोर पर रखूँगा। यह अब गातरा, या जनेऊ पहनने वाले ने सोचना है। की कितना बड़े साइज़ का गातरा या जनऊ पहनना है। यह उसकी खुद की श्रद्धा है।
सिख और हिन्दू में तो और भी बहुत मेल हैं। जैसे हिंदुओं के मंदिर, के गुंबद होते थे। तो गुरु गोबिन्द सिंह के टाइम गुरु द्वारे जो बनाए गए, उसमें भी वही गुंबद बनाए गए। मंदिरों में तालाब होते थे, तो गुरु द्वारों में भी रखे गए। माता के मंदिर को दरबार कहा गया, तो किसी भले मानस ने सोच की हार्मिन्दर साहब को भी हम लोग दरबार ही कहा करेंगे, तो उन्होंने उसका नाम हरमंदिर से दरबार कर दिया। अब कोई कहए की नहीं हिन्दू और सिख अलग अलग हैं, तो मैं कहूँगा की वो ऐसा जहर घोलने की कोशिश कर रहा है जो घोलते घोलते भिंडरवाले को अपनी जान देनी पड़ी। लेकिन वो पगड़ी धारी और मोने बंदे को अलग नहीं कर पाएगा।
और अब आ जाईए आप मूत्र पीने पर। पहली बात तो खुद का मूत्र पीना विज्ञानिक ढंग से बहुत ज्यादा फ़ायदा करता है। और गए का मूत्र पीना तो बहुत ही लाभ दायक है। इसमें हिन्दू वाली कोई बात नहीं। गाय के सब तरह के बेनेफिट सभी समुदाय लेते हैं। गाँव में गाय को घर का मेम्बर मानते हैं। पगड़ी बांधने वाले भी, और मोने भी। इसका दूध भएन्स के दूध से ज्यादा उपयोगी है। इसका गोबर या उसकी सुगंध बैक्टीरीअ आदि भगाने के लिए अधिक उपयोगी है।
इसकी खाद भएन्स की खाद से ज्यादा उपयोगी है। अब कल को रंजीत बाबा जैसा बंदा आए, और कहए की यार गए की टटियाँ लिपि जा रहे हो। और उधर गरीब मार रहे हैं।
अब अगर कोई गायक इन चीजों को गलत बताई जाएगा, तो फिर वो गायक या उसको सुनने वाले, हो सकता है कल को, यह भी कहदें की चोट लगने पर मोने लोग तो हल्दी पीते हैं। या सर दुखने पर कपूर की डली खाते हैं। इतना कपूर या इतनी हल्दी वो दान ही कर दें। फिर इन बातों का कोई इलाज नहीं। सारा आयुर्वेद ही इन चीजों पर खड़ा है। सारी पर्शियन दवाएं, हकीम लुकमान, जिसके नाम पर कहावत तक बन गई की बहम का इलाज तो लुकमान के पास भी नहीं था, वो हकीम लुकमान सारी इसी तरह की अजीब अजीब जड़ी बूटियों से ही इलाज करता था। किसी में ऊंट का मूत्र, तो किसी में गाय का, या भहकरे का। अब कल को कोई गायक कहए की यार यह लोग तो भकरा ही खाए जा रहे हैं। तो उस गायक को इलाज की जरूरत है, आम पब्लिक को नहीं। कतो कुछ लोगों के कहने से कुछ नहीं होता। जो चीज सेवा करने से फ़ायदा देती है, वो सच ही रहेगा। कवों के बैठने से बनेरे ठहते तो पता नहीं क्या हो जाता।
तो अंत में, कहना चाहूँगा की हरेक धर्म में ऐसी बातें हैं, जिनका आज कोई मीनिंग नहीं रहा।
लेकिन कुछ बातें ऐसी भी हैं, जो कुछ भोले बंदों को आडंबर लगती हैं, लेकिन उनके पीछे आज भी विज्ञानिक कारण छिपे हुए हैं।
और अंत में, जैसे गायक कहत है की दूध पत्थर पर चढ़ाने की बजाय दान कर दो। मुझे यकीन है की जितने लोग दानी हैं, खुद वो उसका आधा भी दान नहीं करता होगा। लेकिन शिक्षा दूसरों को देते हैं की यह प्रथा गलत है और ऐसा कर लो।
==========================
लेकिन क्या हमें उन पर रेयकट करना चाहिए, या नहीं?
यह एक महत्वपूर्ण सवाल है। इसके दो पहलू हैं। एक तो यह है की अगर मुझे कोई नशेड़ी कहता है, तो मुझे गुस्सा तो ही लगेगा अगर उसकी बात में थोड़ी सी सच्चाहई होगी। अगर मुझे कोई लँगरा कहए, और मैं सचमच थोड़ा लँगरा कर चलता हूँ, तो ही मुझे गुस्सा लगेगा। अगर मैं नहीं हूँ तो मुझे कितना भी लँगरा, या नशेड़ी कहए, मुझे उसकी मूर्खता पर हँसी तो आएगी, लेकिन क्यूंकी मुझे मालूम है की मैं ऐसा बिल्कुल भी नहीं हूँ, वो कितना भी ढिंढोरा क्यूँ न पिटे , लोग उसी को मूर्ख कहेंगे।
लेकिन दूसरी और बात यह भी है की, बार बार दोहराया झूठ भी सच लगने लग जाता है। a oft-repeated lie is equal to truth.
त इसलिए जो लोग गाने में गिनाए गए काम करते हैं तो उनको गुस्सा आएगा ही, चाहे उनको लगे की वो झूठ बोल रहा है और बार बार बोल गया झूठ कहीं सच न दिखने लग जाए। या फिर चाहे वो कहीं न कहीं खुद के कार्यों को बहम मानते हैं।