Highlights: ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य, और शूद्र: रत्ना डाकू ग्रंथ लिख कर ब्राह्मण हो गया। जबकी राजा हरीश चंद्र चांडालों वाले काम करके चांडाल बन गया। एकलव्य क्षत्रिय कैसे हो गाय? मोती राम महरा क्षत्रिय वाला काम कैसे कर गया? सिरजूदोला से अधिक ताकत, एक बनिए, जगत-सेठ की कैसे बन गई? शोकतगंज और मीर जाफ़िर भी पीछे रह गया। सामाजिक व्यवस्था में जो समूह निचले पायदान पर होता है, उसी की पहचान का सूचक शब्द गाली बन जाता है।
अपनी बात एक कहावत से शुरू करूंगा, It’s not our position but our disposition that determines our destiny हमारी पज़िशन नहीं, हमारी डिस्पज़िशन, दिमाग डेटर्मिन करता है की हमारा भाग्य क्या रहेगा।
हिन्दू धर्म में लोगों के काम के अनुसार 4 वर्ण बनाए गए थे। ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य, और शूद्र। सभी को कुछ अन्य नामों से भी पुकारा जाता रहा है, जैसे वैश को बनिया, क्षत्रिय को खत्री, ब्रहमीन को पंडित या बामन, या शूद्र के लिए बहुत शब्द बदले गए: अछूत, असुर, अवर्ण, चांडाल, चूड़ा, दास, दस्यु, लाल बेग़ी, हरिजन, गिरिजन, untouchables, depressed classes, scheduled castes सो तरह के शब्द बने, जिन सभी को हम आगे चल कर डिस्कस भी करेंगे।
यह जो अलग अलग वर्णों वाले व्यक्ति, इनमें सबसे प्रमुख बात यह है दोस्तों की चारों वर्णों में से कोई भी जन्म के हिसाब से फिक्स नहीं थे। यह काम, उनके कर्म, या किते के हिसाब से थे। यदि कोई बहादुरी का काम करता था, तो वो क्षत्रिय हो जाता था, अगर कोई ग्रंथ लिख लेता था या लिख देता था तो वो पंडित या ब्राह्मण हो जाता था। अगर कोई चीजों का व्यापार करके धन इकठा करने लग जाता था तो वो वैश्य बन जाता था, बनिया हो जाता था। कोई कोई राजा हरीश चंद्र अगर चांडालों वाले काम करता था तो चांडाल ही कहलाता था। और कोई भी बंदा अपना काम, अपना कित्ता अपनी मर्जी के हिसाब से चुन सकता था, उसको कोई रोक नहीं सकता था, न ही रोक सकता है।
अगर कोई एकलव्य चाहता की वो क्षत्रिय का काम करे, तो वो कर सकता है। उसको कौन रोकेगा? कोई रोकता नहीं था। अगर कोई शूद्र कहे की वो वैश्य के तरह अपना कोई छोटा मोटा व्यापार करे, तो किसी भी वक़्त का कानून, न पुराना कानून, न नया कानून, उसको रोक नहीं सकता था।
इसी बाल्मीकि समाज के बाल्मीकि ऋषि, पहले एक शूद्र के घर जन्मे थे, फिर रत्ना नाम के डाकू बन गए, और अंत में सबको बाल्मीकि ऋषि बन गए, जिन्होंने की सारी राम कथा, रामायण का लेखी-करन कर दिया।
बड़े से बड़ा कारोबार, पैसे से नहीं, जाती से नहीं, एक बड़े आइडिया से बड़ा होता है. एक अपनी बड़ी सोच से बड़ा होता है।
और आपके कारोबार से ही आपकी जाती बनती है। जैसे काम, वैसा धाम, और वैसा ही आयाम। जैसा कित्ता आपका होगा, वही आप बन जाएंगे। और कोई दूसरा आपको आपका कित्ता चुनने के लिए मजबूर नहीं कर सकता, दोस्तों। जो लोग कहते हैं की शूद्र जाती को दबाया गया, कुछऔर कित्ता अपनाने नहीं दिया गया, वो सिर्फ अपनी कमजोरी दूसरे के सर पर लादते हैं। मेरे को बताओ कैसे दबाया? किसने दबाया? कोई इतिहास की स्टोरी बताओ की उसको सिर्फ शूद्र होने के कारण किसी ने दबाया। छोटे लेवल पर लोग आपस में झगड़ा करते हैं, वो पॉसिबल है। बड़े लेवल पे आप बता दो की किस राजा ने किस ने कहा की शूद्र कोई और काम नहीं कर सकता है। आप यह कह सकते हैं की गरीब को अमीर दबाता रहा है, या दबाने का यत्न करता है। सच है। हो सकता है। क्यूंकी दुनिया में दो ही तबके हैं, दो ही क्लाससेस हैं, विनर और लूसर। लेकिन लूसर यदि अपनी असफलता अपने जन्म स्थान, परिवार, हालातों पर फोड़ने की बजाय, ठान ले, तो अंत में वो विनर बन कर ही हटेगा, यदि उसमें हठ हो तो, जिद्द हो।
What you think, you become.
Remember: a common man desires, wishes-security, proper circumstances, but an uncommon mind-- creates them.
वो उनको पैदा करता है।
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हाँ, यह है की ज्यादातर बेटे, अपनी मर्जी से, अपने पिता का काम अपनाते हैं। लुहार के बेटा लुहार ही कहलाता था, बढ़िय का बेटा बढ़ई, भंगी का बेटा भंगी कहलाता था। चमार का बेटा चमार। बनिए, बानिए का बेटा पैसों में लाला बन कर पैसों में ही डील करता था। वो उनकी अपनी मर्जी है, वो यदि अपना काम कित्ता चेंज करना चाहें तो कभी भी कर सकते हैं। हाँ अमीर और गरीब का फ़र्क तब भी था, आज भी है, और हमेशा रहेगा, रहना भी चाहिए। यह प्रकृती का नियम है, सिस्टम है।
और मैं तो यह भी मानता हूँ, आप भी मानते होंगे, की पुराने समयों में आपस के वर्णों में इतना फ़र्क था ही नहीं, जितना अब बन चुका है। तब अमीर बंदे के घर भी वही सुविधाएं होती थीं, जो गरीब, वैश्य या शूद्र के घर पर होतीं थीं। अगर हम केवल देश एक राजा परिवार को अपवाद माँ लें, तो बाकी अमीर क्षत्रिय हों, ब्राह्मण हों कोई भी हों, उनके घर भी कोई ऐसे उपकरण या सुविधाएं नहीं थीं, जो गरीब के घर पर न हों।
लगभग एक जैसे ही जानवर, गाय आदि वो पालते थे। यह हो सकता है की अमीर ब्राह्मण या बनिए के पास 200 गाय हों और गरीब शूद्र के पास 2 हों। जैसे क्षत्रिय के पुत्रों को दीक्षा देने के बाबजऊद उनके गुरु अपने झोंपड़े या आश्रम में ही रहते थे, और वहीं पर सभी राजकुमारों को रह कर शिक्षा लेनी होती थी।
तो फिर फ़र्क क्या था? क्यूँ चिल्लाते हैं लोग? काम-धंधे के, कित्ते के फरक तो सदा से थे, सदा रहेंगे। इसकी अनगिनत उधारने आपको इतिहास में मिल जाएंगी, की जाती या वर्ण का कोई महत्व नहीं, महत्व केवल धन का ही रहा है। संपदा का रहा है। लोग चिल्लाते हैं। क्यूंकी वो एक समुदाय के लीडर बनना चाहते हैं। तो जब उनको कोई सार्थक मुद्दा नहीं मिलता, तो वो जो भी थोड़ा बहुत मुद्दा बन सकता हो, वो उसको बना कर खुद को बहुत ऊँचा तक महलों तक ले जाते हैं। और जो गरीब होते हैं, वो उनकी तरफ आशा की किरण के रूप में देख रहे होते हैं, वो तब भी सड़क पर ललचाई भरी नज़रों से उस अमीर के हक में नारे लगा लगा कर अपना कंठ सूखा रहे होते हैं, जिनकी भावनाओं पर पैर रख कर वो औरत या मर्द, ac गाड़ी में बैठ कर, 10-10 कारों के सिक्युरिटी काफिले में बैठ कर उनके पास से गुजर जाता है, लेकिन उनके पास कार रोकनी तो दूर, उनकी तरफ देखता भी नहीं।
उन्ही की भावनाओं का कह कर की तुम गरीब हो, तुमको लूटा गया है, मेरे साथ चलो, मेरे पीछे रहो। वो झुंड बना कर खुद अमीर बन जाता है, और वो झुंड गरीब का गरीब ही रह जाता है। मायावती के पास कितना बड़ा महल है आप सोच भी नहीं सकते। सिर्फ यह कह कर की गरीबों को लूटा गया, खुद वो कितनी अमीर बन गई है, आपको पता भी नहीं।
खैर, धीरे धीरे, जो काम दिमागी थे, उनकी वैल्यू बढ़ती गई, उनकी तनखा बढ़ती गई। और हाथ के जो काम थे, उनकी वैल्यू कम होती गई। लेकिन अगर किसी बनिए के पास क्षत्रीय से भी अधिक संपदा इकठी हो गई न, तो उसका प्रभाव उस देश के उस सेनापति से भी अधिक हो जाता था, और वो खुद बनिया, बनिया समुदाय से ऊपर उठ कर, क्षत्रीय तुल्य समझने लगता था, अपने आपको। क्यूंकी उसके पास संपदा ज्यादा हो गई। मतलब कहने का की धन की ही वैल्यू थी। मैं आपको इन चीजों की, इस बात की कुछ उधारनें देना चाहूँगा।
गुरु गोबिन्द सिंह जी के पुत्रों को जोरावर सिंह और फतेह सिंह, और माता गुजरी के साथ दोनों पुत्र जो सरसू या सरसा नदी पर विच्छड़ गए थे। उनको गंगू तेली मिला। जिसने धोखे से इनको वजीर खा के पास फंसा दिया। लेकिन मोती राम महरा, जो वर्ण व्यवस्था की हिसाब से निम्न वर्ण का था, लेकिन उसने उच्चतम कोटी का काम किया। जो क्षत्रिय भी नहीं करता या कर सकता था। जो सारे परिवार का जो धन कमाया था मोती राम मेहरा ने, उस ने सिर्फ 2-3 दिन गरम दूध पिलाने के लिए, पहरेदारों को 2-3 दिन में में सिर्फ़ माता गुजरी और उनके बच्चों को गरम दूध पिलाने के लिए ही अपना धन रिश्वत के रूप में दे दिया, सिर्फ 2-3 दिन में ही। और इसी जुर्म के लिए मोती राम महरा को, उसकी वृद्ध माँ को, उसकी पत्नी को, बल्कि उसके छोटे से बच्चे को; कोल्हू में पीस दिया। फिर क्या कोई मोती राम महरा को कह देगा की वो निम्न जाती का था, उच्च जाती का काम क्यूँ किया, या कैसे कर दिया? कोई नहीं कह सकता। क्यूंकी हरएक बंदा केवल और केवल अपने कितते, अपने काम से पहचाना जाता रहा है दोस्तों। तब भी। आज भी।
जो कान्स्टिटूशन के स्केजूल में लिखी caste हैं इंडिया में, उस निम्न जाती या caste के बंदे को, कोई चूड़ा तभी कहकर चिड़ा सकता है, जब सामने वाला गरीब हो। वही व्यक्ति, चाहे वो कितनी भी निम्न जाती का क्यूँ न समझआ जाता हो, अगर बैंक में 50 हजार रूपी महिना लेता है, तो उसको पहले तो आप कह नहीं पाओगे, गाली दे ही नहीं पाएगा। यदि कहोगे भी तो उस पर कोई असर नहीं होगा, क्यूंकी आपकी बात में दम नहीं होगा। वो आपसे अमीर है। और यह भी हो सकता है की वो आपको बराबर ही कोई गाली निकाल दे। यानी मामला सारा पैसों का है। गरीब है के अमीर है। जाती का कोई मतलब ही नहीं। फैल और कामयाब।
नेक्स्ट, दीवान टोडर मल ले लीजिए, जो वैश्य थे, बनिए थे, ने अपना सम्पूर्ण जीवन उन्होंने अलग अलग राजा के पास धन कमाने में ही लगाया। लेकिन वही सारा कमाया धन देकर सिर्फ उनके संस्कार के लिए उन्होंने जगह खरीदी गुरु गोबिन्द सिंह के बच्चों के लिए और क्षत्रिय धर्म वाला काम करके दिखाया। बाद में वजीर खान ने टोडर मल की मशहूर जहाजी हवेली तहस नहस कर दी, और बची खुची जायदाद भी तबाह कर दी थी। लेकिन अब आप ही बताओ की वो बनिए कहे जाएंगे, या क्षत्रिय? निश्चित ही कर्म ही महत्वपूरण है। आपका अंतिम नाम नहीं।
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फिर उसके बाद 1756-57 में मशहूर पलासी के युद्ध में, मुस्लिम राजा सिरजूदोला से अधिक ताकत, एक बनिए, जगत-सेठ की थी। सिरजूदुला ने धीरे धीरे करके उस बनिए का सारा धन लूट लिया था। जगत सेठ उससे बहुत नाखुश था। इस चक्कर में वो अंग्रेजों से जा मिला। उस पर शोले फिल्म में अमिताभ द्वारा बोली गई वो कहावत सही बैठती है की नेकी हल चलाना सीखा देती है तो बदी बंदूक। और ऐसे वो अपने बंदों को साथ लेकर, क्षत्रियों से भी अधिक लड़ा, और सिरज़्उदुलह को हरवाया, अंग्रेजों के साथ मिल कर। कोई उसको यह थोड़े न कहता था की तुम लड़ नहीं सकते क्यूंकी तुम वैश्य हो? कभी भी नहीं। बात सारी धन की और आपके दिमाग की है की आप क्या सोचते हो।
वर्ण या जातियों का किसी भी धर्म समुदाय में कोई फरक नहीं, सिवाये गरीबी अमीरी के। यहाँ मैं थोड़ा स मुद्दे से हटते हुए 1-2 बातें भी बताना चाहूँगा की जब औरेनगजेब की मृत्य के बाद सारी रियासतें बिखरने लग गईं। गुरु गोबिन्द सिंह जी भी चले गए। तब बंगाल साइड में जो अरेंगजेब का एक वजीर, अलवर्दी खान, था। और आपको पता ही है की इंडिया में पूरे मुस्लिम शासन के दोरान हिन्दू कुचले ही जाते रहे, अपनी व्यापक शांति-शांति के पाठ के चलते, लेकिन मुस्लिमों का पतन उनकी अंदरूनी बगावतों और बाद में अंग्रेजों के कारण हुआ। तो अलवर्दी खान ने बगावत करके औरेनगजेब साइड की बंगाल साइड की बादशाहत अपने कब्जे में कर ली। लेकिन अलवर्दी के पास केवल तीन बेटियाँ बेटियाँ ही थीं, तो उसने अपनी छोटी बेटी के बेटे सिरज़्उदुला को जवान उम्र में ही, 17-18-20 साल का होगा वो, राजा घोषित कर दिया। तो फिर सिराजूदुला की जो मासी थी, यानी की जो अलवर्दी की दूसरी बेटी थी, उसका बेटा शोकतगंज, और एक मीरजाफर वो भी सारी उम्र, शोकतगंज, उससे दुश्मनी निभाता रहा की उसको क्यूँ नहीं राजा बनाया उसके नाना ने। मीरजाफर को बाद में अंग्रेजों ने नाम का राजा भी बनाई रखा बहुत देर तक, असलियत में अंग्रेजों की चलती थी, मीरजाफर खुद को राजा कहता था, एक कहलाने के लिए ही उसने गद्दारी कर दी थी। खैर, बात यह है की सिराजूदुला भी इन्जॉय कर न सका और एक बनिए ने क्षत्रिय का काम करते हुए उसका तख्त पलट कर रख दिया।
तो क्या वर्ण व्यवस्था ने इनको कभी मना किया की तुम यह काम मत करो? नहीं!! कभी नहीं। वर्ण व्यवस्था, सिर्फ समाज में एक ऑर्डर, एक अनुक्रमता लाने के लिए थी। क्यूंकी तब सिम्पल साधारण काम थे, भगवान की तपस्या या मंतरोंचरण का काम, जो करता है, जिसमें शुद्धता की बहुत महता थी, और होनी भी चाहिए। और जो समुदाय यह काम करता था, उसको ब्राह्मण कहने लग गए। जो लड़ाई से रक्षा करत था, जो की अपने आप में सबसे ज्यादा महत्व पूर्ण काम था जो की देश को दुश्मनों से लड़ाई की हालत में यह प्रेरणा देता था की खुद कट जाओ, तुम्हारी लाश से गुजर कर ही दुश्मन प्रवेश पा सके, वो काम करने वाला क्षत्रिय बन गया। उसके बाद वैश्य, की भाई तुम बाकी तीनों वर्णों के तीनों क्लैसफकैशनस हैं, इनके जीवन यापन की जरूरतों को पूरा करो, वो वैश्य कहलाने लग गया। और फिर अंतिम बचा काम, की तीनों के मल मूत्र की सफाई या अन्य छोटे काम करने वाले को एक नाम दिया जाना था, उसको शूद्र कहा जाने लगा गया। चाहे दिमाग की बजह से या चाहे इसलिए की इसके पुरखों ने वही आसान काम चुना। चाहे दिमाग की कमी की बजह से, या फिर इसलिए की उसके पूरखों ने वही आसान काम चुना। हालाँकि किसी भी वर्ण के बंदे को कोई रोकता नहीं था। न ही रोक सकता था। न ही बनियो को कोई युद्ध करके क्षत्रिय बनने से रोक सकता था। न की कोई कह सकता था की तुम गाँव में सफाई का काम करते हो तो अपने नाम के पीछे ‘सिंह’ नही लगा सकते। बल्क आज के टाइम में भी कोई कह नहीं सकता , तुम सिंह क्यूँ हो, तुम तो सफाई का काम करते हो। निम्न जाती के हो। लगा लो कोई सिंह बन जाओ। उनको क्या है। कोई मान लो मजहबी सिख है, वो कल को क्षत्रिय वालों का काम करने लग जाए, बानियों वाला काम करने लग जाए, दुकान खोल ले, तो कोई न तोड़ ने करेगा। अपने नाम के पीछे को कुछ भी, चाहे तो बनिए वाला लगा ले। या क्षत्रियों वाला इक्स्टेन्शन लगा ले, कोई मना नहीं करता। कोई मर्जी जाती में घुस जाओ, कोई मर्जी जाती में से निकल जाओ। हाँ उच्च जाती में निम्न नहीं आ सकते क्यूंकी वो उसका चक्कर दूसरा पड़ता है की यह गवर्नमेंट के बेनेफिट लेने के लिए अपने आप को उच्च जाती से निम्न कर लिया। वो नहीं कर सकते, निम्न से उच्च में तो जब मर्जी आ जाओ। कोई भी खुद को गुरु गोबिन्द सिंह का सिंह कह सकता है, की वो सबका मल ही क्यूँ न उठाए। या क्यूँ उठाए, कोई उसको रोक नहीं सकता। कोई किसी को कुछ करने से, कुछ नाम रखने से, करने से नहीं रोक सकता था। बस यह साधारण वर्गीकरण था, जो हमारे पुरखों ने किया। नाम तो देने ही पड़ने थे। जैसे सारे कार्पन्टर होंगे तो हम सबको बढ़िई कहने ही लग जाएंगे। वो कल को कहें की हमको बढ़िई कह कर हमारी बेइज्जती कर दी। भई यह तो कार्पन्टर हैं, ओ हरेक वर्ग को किसी न किसी चीज का नाम तो रख के ही बढ़ेगा/बनेगा। पहले छोटे समुदाय का नाम रख के रखते हैं फिर बड़े का। पहले एक बठिंडा का नाम है, उसके बाद बड़ा यूनिट जैसे बठिंडा जैसे जिले मिला कर पंजाब बन गया, फिर सारे पंजाब जैसी सारी स्टेट्स मिला कर इंडिया बन गया। ऐसे ही पहले लुहार है, बढ़ई है, जो अलग अलग काम करने वाले उनको मिला कर फिर एक बड़ा वर्ण बना दिया। अपने काम की बजह से वो किसी भी वर्ण में आते थे, न की किसी भी खास वर्ण में आने के कारण वो काम करते थे। वो स्वतंत्र थे, किसी भी दूसरे काम या वर्ण या वर्ग वाले काम करने के लिए।
================= Words are not the culprits. Govt’s joker act
ऐसे धीरे धीरे जब समाज और सभ्यता ने और प्रगति की। जिनको अब तक शूद्र कहा जाता था, और शूद्र शब्द में कोई घृणा भी नही थी, लेकिन अब क्यूंकी लोग उनसे कित्ते की बजह से परे-परे रहते थे, उन लोगों से तो कुछ लोग उनको अछूत कहने लग गए। नाम बदल दिया। जैसे जैसे वक़्त बदला नाम बदल गया। जैसे जैसे शिक्षा का प्रसार हुआ, तो समाज के कुछ बंदों ने ‘अछूत’ को गलत समझते हुए, उनको ‘चूड़ा’ कह कर संभोदहित करना शुरू किया। तब ‘चूड़ा’ शब्द बहुत आदरणीय शब्द था। बेकार शब्द नहीं था। इसको बेकार इसके किते की बजह से समझने लग गए, इसकी गरीबी की बजह से समझने लग गए।
“चूड़ा” शब्द का मतलब, दल का, या घर का प्रमुख था। चाहे आप कोई भी डिक्शनेरी उठा कर देख लेना।
जो प्रमुख बंदा होता है, जिसके बिना कोई काम संपूरण नहीं होता। लेकिन वही बात, धीरे धीरे लोगों को लगने लगा की ‘चूड़ा’ शब्द का मतलब गरीब और निम्न काम करने वाला है।
दरअसल, सामाजिक व्यवस्था में जो समूह निचले पायदान पर होता है न, उसकी पहचान का सूचक शब्द गाली बन जाता है। पूरे भारत वर्ष में जो भी शब्द, गरीब या कोई छोटा किते करने वाले सूचक थे, जो शब्द भी, वो सामाजिक व्यवहार में गाली बनते चले गए। इस अर्थ में जो जितना गरीब और जितना छोटा, हाथ की मेहनत करने वाला, उसकी पहचान उतनी ही बड़ी गाली। अगर कोई किसी को भंगी कहता, तो वो चमार कहने से ज्यादा गाली। अगर कोई किसी को चमार कहता तो वो कुम्हार कहने से कम गाली। यानि, उस शब्द में गाली नहीं है, उस जाती में गाली नहीं है, बल्कि उस कित्ते में गाली छिपी रहती है। भई तू तो जूतों का काम करता है, जूतों को सीने का काम करता है। तो नाम बदलने से जाती, या जाती होने से बंदे की पहचान नहीं आती, उसके काम से उसकी पहचान है।
लेकिन फिर उसके बाद, महात्मा गांधी ने यह सभी शब्द बंद करके, बहुत अच्छा शब्द शुरू किया- ‘हरिजन’। सब बहुत खुश हुए। लेकिन फिर वही बात, धीरे धीरे हरिजन का मतलब जब प्रसरित हो गया की इसका मतलब तो यह है की जो बंदा सफाई का, या दूसरे छोटे मोटे काम करता, उसके लिए उपयुक्त होता है, तो वो अच्छा खासा इज्जत वाला शब्द भी कुछ लोगों को गाली लगने लग गया। की नहीं हरी जन भी एक गाली है।
तो वो कहते की नहीं हमें अब हरिजन भी पसंद नहीं।
तो उस वक़्त, देश आजाद होने पर, सविधान के पहले Schedule में सभी जातियों और कबीलों जो लगभग 2000 के करीब हैं जातियाँ और कबीले, उनको सूची-बद्ध किया गया। तो धीरे धीरे लोगों ने महात्मा गांधी के दिए शब्द ‘हरिजन’ को भी गाली तुल्य बना लिया। तो उसकी जगह scheduled caste कहने लग गए। की जो कान्स्टिटूशन के स्केजूल में कास्ट लिखी गई हैं, वो स्केजूल्ड कास्ट हो गईं, यानी वो कास्ट या जातीया जो कान्स्टिटूशन के पहले स्केजूल में मेन्शन की गई हैं, हालाँकि उसमें ऊंची नीची सभी जातियों का जिक्र है, मेरे को यह ध्यान में आ रहा है।
लेकिन अब पिछले 20 वर्षों के लगभग, गवर्नमेंट ने यह कानून बना दिया की किसी की जाती बोलनी ही नहीं है। ऐसा कोई शब्द बोलना ही नहीं है, जिससे उसकी जाती की सूचना मिले। यानी जाती सूचक शब्द के जरिए, जाती की सूचना देनी ही नहीं है।
लेकिन खुद दोगली गवर्नमेंट छोटी सी भी ऐप्लकैशन देने जाओ, तो सबसे पहले जाती की सूचना मांगती है। और दूसरे को कहती है की जाती की सूचना देनी नहीं तुमने, जाती की सूचना बोलनी नहीं। तो फिर क्या किया जाए। तो फिर इन गरीब लोगों के लिए एक और, नया शब्द ढूंढा, ढूँढा गया, यूस किया गया: दलित।
लेकिन यह बड़ी हास्यप्रद बात है की गवर्नमेंट जो खुद पूछती है, आप खुद सोच के देखो गवर्नमेंट कहती है की जाती किसी की बतानी नहीं है, जाती पूछनी नहीं है, जाती बोलनी नहीं है। खुद वो जाती पूछती है, छोटा सा फोरम भी लेने जाओ आप। भई तुम्हारी जाती क्या है, यानी की जो गाली हम किसी को देना नहीं चाहते, कोई सुनना नहीं चाहता वो गाली खुद उसके मुहँ से कहलवाते हैं की तू खुद बोल की तेरी जाती क्या है।
लेकिन अब वो दिन दूर नहीं दोस्तों, जब कुछ लोगों को दलित शब्द गाली लगने लग जाएगा। क्यूंकी गड़बड़ किसी शब्द में नहीं है। गड़बड़ उस अर्थ में है, जो वो शब्द इंगित करता है।
आज हम डिक्लेर कर दें की गीदड़ को गीदड़ नहीं, भिदड़ कहा जाएगा। तो क्या जल्दी ही, भिदड़ उस कायरता शब्द का सिम्बल नहीं बन जाएगा, जिसका मीनिंग आज गीदड़ है। लोग भिदड़ से चिड़ने लग जाएंगे की मेरे को भिदड़ क्यूँ कहा। तो शब्द थोड़ा न है, चाहे आप उसको दलित कह दो, हरिजन कह दो, स्केजूल्ड कास्ट कह दो, चूड़ा कह दो, कुछ भी कहलवा लो, बात तो उस अर्थ में छिपी हुई है, जो उसका अर्थ है। जब तुम कहते हो एक साइड पे की तुम किसी जाती की सूचना दो ही मत, तो तुम खुद उस सूचना का क्यूँ पूछते हो? इसका मतलब आप वही जाती का शब्द खुद खुल कर न बोल ने से बंदे के मुहँ से बार बार कहलवाना चाहते हो। क्या मीनिंग हुआ उस बात का। और जब जाती की सूचना देना गलत ही है, तो फिर बनिए की जाती की सूचना देना गलत क्यूँ नहीं है? वो सही कैसे हो गया। बनिए की जाती की सूचना दो की तू बनिया है, वो सही है, चूड़े की, अछूत की, दलित की, किसी की भी जाती, चमार की, जो छोटा काम करता है, गरीब बंदा उसकी जाती की सूचना देना गाली है। बामन को बामन कहना, पुकारना गाली नहीं है। क्या बेफिजूल की बातें हैं।
खैर अब मैं अपने अंतिम पॉइंट पर आता हूँ, जो महत्वपूर्ण पॉइंट है। आज कुछ लोगों ने दोस्तो सबको मालूम है, की अपना यह बाकायदा यह धंधा बना लिया है की हम फलाने वर्ग से संभनधित हैं, और हम किराये पर उपलव्ध हैं, अगर आपने समाज में किसी को भी ठीक करना है, उससे बदला लेना है, तो हम पुलिस स्टेशन जाएंगे और कहेंगे की इस बंदे ने हमें चूड़ा बोला है, या जो भी मतलब हमारी जाती है, चमार बाजीगर, मेघावल, बामनी, खासी, जो भी बोली है। वो बोला है इसने। क्यूंकी उसमें सीधी गिरफ़्तारी है। यह मैं मोदी गवर्नमेंट को, मैं मोदी भगत हूँ, लेकिन गालियां निकालता हूँ, की जब सुप्रीम कोर्ट ने बोल दिया था की भई यह सारा मिस्यूज़ हो रहा यह कानून, तो मोदी गवर्नमेंट को क्या पड़ी थी की दोबारा फिर वो कर दिया। यह सबसे घटिया काम है मोदी का मतलब की जो देश में गलत कानून गलत चीज का उसने पक्ष लिया। और फिर भी जो समुदाय के लिए जो, वो समुदाय उनका अहसान नहीं मानता, यह भी पता है उनको। वो फिर भी उसको गालियां निकालता है मोदी को। सुप्रीम कोर्ट ने देखा की 100% केस रजिस्टर होते हैं, 95% से अधिक तो वो प्रूफ हो जाते हैं की वो उसने बोला ही नहीं, वो बदला लेने के लिए हुआ है।
चलो खैर। ऐसा ही केस एक देव समाज के मामले में बठिंडा में सामने आया है, वहाँ पर एक आदमी है निम्मा। जिसको हम आज के कानून के हिसाब से दलित या स्केजूल्ड कास्ट (जो स्केजूल में लिखी हुई कास्ट हैं ) कह सकते हैं। और जो फिरोजेपुर देव समाज कॉलेज में, पंजाब, देव समाज का जो कॉलेज है, फिरोजेपुर में, पंजाब गवर्नमेंट से सैलरी पा रहा है। लेकिन फिर भी ढीलों के कहने से अपने ड्यूटी छोड़ कर यहाँ देव समाज मंदिर में बैठा है और इनको धमका रहा है। ऐसा नहीं है की यह मैं कह रहा हूँ। खुद, खुद देव अनूप जी सामने आकार अभी मैं यह स्पीच रिकार्ड कर रहा हूँ, इसके बाद, इससे पहले एक्चुअल्ली वो रिकार्ड हो चुकी है, देव अनूप जी खुद सामने आकर, इंटरव्यू देकर परसों हम लोगों के सामने यह रोना रोआ है, दुख रोया है, की वो यह बातें कह रहा है। और यह नहीं है की उन्होंने पुलिस के पास नहीं दी। लेकिन पुलिस का सबको मालूम है। वो रोज कहता है की अपने ही समुदाय के दूसरे बंदे को इकठा करके, पुलिस स्टेशन के सामने जाकर यह कहेगा की तुमने मेरे को ‘चूड़ा’ बोला है। या मेरी जाती बोली है। मेरी जाती तूने खुले आम बोल दी है। जबकि आज के दिन मुझे सिर्फ सरकार ही मुझे मेरे जाती वाले नाम से पुकार सकती है, बुला सकती है, कोई बंदा नहीं बुला सकता। तो देव अनूप उसको कहता की भाई मैंने तो कहा ही नहीं, वो कहता की जब मैं अपनी वाइफ अपने सेकड़ों साथियों के साथ यह गवाही देंगे हम लोग की तुमने कहा है, तो तुम जैल में जाने के बाद कोर्ट में साबित करते रहना की तुमने यह बोला नहीं। देव जी ने यहाँ तक बोला की भाई हम लोग मेरी जाती खुद की किसी को मालूम नहीं, हम सिर्फ देव समाजी हैं, मेरे बारे में किसी को मालूम ही नहीं होगा, मैं कौन वर्ण कौन जाती में हूँ। मेरे पिता जी की कई साल पहले जब कोई झगड़ा नहीं था किसी से आज तो यह देव समाज की सोसाइटी का झगड़ा हो गया, उस वक्त भी एक दलित से किरया क्रम हम ने सब करवाया था। उसकी तस्वीरें सबूत हैं इनके पास जो इन्होंने इंटरव्यू (प्रेस कान्फ्रन्स) में इन्होंने दिखाई हैं। तो हम तो मानते ही नहीं जाती वाती। वो कहता की जब मैं कहूँगा न की तुमने मेरी जाती बोली है, तो सब कुछ देखना होता चला जाएगा। इतनी मतलब की धमकियाँ मिल रही हैं। मतलब यह लोग किराये पर उपलव्ध हैं। की हम बदला लेंगे आपकी जगह जो आपने किसी ने बदला लेना है, हम आकार कहेंगे, हमारा एक सोक बंदों का ग्रुप है, वो आकर कहेगा की इसने हमें यह बोल दिया है, और इसको अरेस्ट करो। आम बंदा अरेस्ट से डरता है। कोर्ट से नहीं डरता। जब एक बार बैल हो जाती है, तो फिर भगवान का नाम है, न्याय मिलेगा नहीं मिलेगा, 10 साल, 20 साल, वो तो एक अलग चीज है। मतलब गिरफ़्तारी से हरेक बंदा डरता है कौन बंदा चाहता है की मैं घटा या एक दिन या दो दिन मैं अंदर वहाँ पर रह कर आउँ।
तो यह चीज बंद करनी पड़ेगी, मैं आपको देव जी की, अनूप जी की वो इंटरव्यू देखिए, और यह खुद अनूप जी मुहँ से सुनिए, मुहँ से ही सुन लीजिए आप, और खुद फैसला करिए की समाज की हालत क्या है। और आपका फ़ायदा भी हो सकता है। क्यूंकी आपने किसी से बदला लेना है। तो देव समाज मंदिर में आप संपर्क करते हैं, शायद आपको भी यह सेवा कोई पैसे लेकर मिल जाए।
ऐसी चीजें देख कर वो इंग्लिश की कहावत भी झूठी लगने लग जाती है। कहते हैं न Truth can be doubted, troubled, upset, but not defeated.
ऐसी चीजें देख कर लगता है की ट्रुथ भी डिफीट हो सकता है भाई।
हाँ चलो खैर, और हाँ जो देव समाज का जो मुद्दा है, एक मैँ आपको बता दूँ, किसी भी नूज़्पैपर में दिखाई नहीं दिया पिछले 3 महीने से, सिर्फ मैंने, बठिंडा हेल्पर ने शुरू किया था वो, मैंने पर्सनल लेवल पे भी किया, ग्रुप के लेवल पर भी हमने बहुत किया। मतलब उनको यकीन नहीं आया था की देव समाज वालों को, की कोई रिपोर्टर उठा लेगा, क्यूंकी रिपोर्टर जाते थे, वहाँ उनकी इंटरव्यू लेते थे, किसी नूज़्पैपर में नहीं छपा। सिर्फ छोटी सी छपी भी तो इनके उलट जो सच्चाई नहीं थी, वो चीज छपी, वो चीज उलट करके छापी।
आज जो बठिंडा हेल्पर ने खूब शोर मचाया, भगवान का शुक्र है की हरेक अखबार को दिख गया। हरेक अखबार को आज वही बातें दिख रही हैं, जो तीन महीने पहले बठिंडा हेल्पर जिन चीजों की आवाज उठा रहा है। भास्कर जिसने लिखा था की ढीलों तो कहता है की अनूप 22 लाख खा गया। जबकि वो सामने पड़े थे, बैंक में क्लेयर कट। भास्कर आज सारी स्टोरी छापने पर मजबूर हो गया। पंजाब केसरी, जागरण, ट्रिब्यून, सब में आने लग गई अब यह न्यूज। क्यूंकी यह सारे समाज का मसला है भाई। कब तक इग्नोर करेंगे भाई।
चलो। अगर आपको कोई किसी से बदला लेना है तो आप उसी तरह निमा जैसे कहता है की मैं कह दूंगा, ऐसे बंदा आपको भी मिल सकता है, कोशिश करें तो, जो कहा देगा की इसने मेरी जाती बोली है। आपको मिल सकता है। और देव अनूप जी का दुखड़ा सुनना है तो मैं या तो इसी विडिओ के साथ अटैच कर दूंगा, या इस के साथ ही मिलेगी आपको। वो आप उनका है जरूर दुखड़ा सुन लीजिए और उनके प्रूफ देख लीजिए की कैसे उनको परेशान कर रहा है बंदा। क्या कह कर, यह उनके खुद के मुहँ से सुन लीजिए।
थैंक यू, बाय, नमस्कार। जय हिन्द।
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